जैसे शीशे का परिवेश बरामदे की धूप की अगली कड़ी है, ठीक वैसे धूप की वापसी की उत्पत्ति भी बरामदे की धूप से ही हुई है। बरामदे की धूप मेरी रचना यात्रा ही नहीं मेरी जीवन यात्रा के लिये भी
बरदान अथवा अभिशाप दोनों ही हैं यह सच है कि मैं बरामदे कि धूप से कभी मुक्ति नहीं पा सका यह मेरे अचेतन अर्द्धचेतन और चेतन में कुंडली मार कर बैठी है इससे मुक्ति शायद मेरे लिए संभव नहीं धूप की वापसी में अधिकतर कविताएँ
बरामदे की धूप की छाया में ही लिखी गई हैं।
मैं मन से चाह रहा हूँ कि इस छाया सर मुक्ति पा करआगे बढ़ सकूँ, क्योंकि मेरी लेखन यात्रा में
व्यवधान उत्पन्न हो रहा है।