इस व्यंग्य संग्रह के लेखक श्री दीपक कर्पे और मैं एक ही बैंक यानी बैंक ऑफ महाराष्ट्र में साथ कार्य कर चुके हैं।बैंक की गृह पत्रिका में साथ ही लेखन भी किया है ।इसी नाते उन्होंने अपने इस प्रथम प्रकाशित होने वाले संग्रह की कुछ रचनायें समीक्षा के बतौर विचार व्यक्त करने के उद्देश्य से प्रेषित की थी।
आसपास के माहौल से छोटी छोटी बातों से उठाए गए उनके व्यंग्य दिल को छूते हैं। साथ ही हास्य का पुट होने के कारण गुदगुदाते भी हैं। देखिए उनकी एक व्यंग्य रचना "एक नई क्रांति :कुत्ता क्रांति" में व्यंग्यकार ने कुत्तों के माध्यम से हमारी संस्कृति पर हो रहे धीमे प्रहार पर भी ध्यान बखूबी खींचा है।
"वी. आई. पी. का आगमन और मोहल्ले का काया कल्प" नामक रचना को पढ़ें। यह एक तंज भी है और आज की सच्चाई भी। हम अस्थायी व्यवस्थाओं मे इतना धन खर्च कर देते हैं कि उससे इन समस्याओं का स्थाई हल निकल सकता है। व्यंग्यकार की भाषा चुटीली है और सरल भी, जिससे पाठक का मन रमा रहता है।
"और भिया कैसे हो? बस मजे में!" नामक व्यंग्य रचना में मालवी भाषा और संस्कृति की खुशबू आती रहती है।हम एक दूसरे से मिलते हैं तो शिष्टाचार वश हालचाल इन्हीं शब्दों में पूछते हैं परंतु सामने वाला जब दुखी, अप्रसन्न, बीमारी या संकटग्रस्त स्थिति में हो तो तब यही वाक्य सामने वाले के लिए चुभने वाले हो जाते है। साधारण बोलचाल की भाषा में व्यंग्यकार ने अच्छी चुटकियां ली है। "अंधा बांटे रेवड़ी" शीर्षक के तहत व्यंग्यकार ने शुरूआत तो रेल विभाग में बंटने वाली रेवड़ी से की है, पश्चात शिक्षा विभाग के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं पर अपनी लेखनी की क्षमता का पूरा फायदा उठाते हुए अपने फलक को प्रशासनिक , राजनीतिक और समाज के अन्य क्षेत्रों को भी लपेट लिया। यह सच कहा गया है कि आज ईमानदार वहीं बचा है जिसे खाने और अनियमितता करने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ। गिने चुने अपवाद छोड़ करअब देखो न मौका मिलते ही मौसी अपने पिद्दी से भानजे को चित्रकला प्रतियोगिता में सर्वोच्च सम्मान दिलाना चाहती है जिसे चित्रकला का ,क ख ग भी पता नहीं है। अच्छा करारा व्यंग्य है।
"हरी" का "हैरी" बनना" इस व्यंग्य के बारे में कहना चाहूंगा कि हिंदी में एक कहावत है- "अधजल गगरी छलकत जाय", यहां पूर्णतः लागू होती है।भाषा का दंभ और अहंकार वही झलकाते हैं ,जिन्हे वह भाषा पूरी तौर पर आती नहीं है। अन्यथा जो आनंद, हर्ष और संतोष अपनी भाषा में होता है वह अन्यत्र कहाँ।जिस आदमी के साधारण से अंग्रेजी शब्दों और वाक्यों ही में हजारों त्रुटियां विद्यमान हो, वह क्योंकर इंग्लिश की टांग तोड़ कर अपनी फजीहत करवाते हैं। ऐसे उदाहरण आजकल घर-घर में देखने के लिए मिल जाएंगे। वह कहावत है न एक ढूंढो तो मिले हजार।