धूप मे सहमी हुई परछाई का अंदाज हूँ,
या किसी घायल परिंदे की दबी परवाज़ हूँ,
गूंजते ही बाज़गश्तों से उलझ के खो गयी,
क्यों मुझे लगता है जैसे मैं वही आवाज़ हूँ।
लेखिका को हिंदी और उर्दू दोनो ही भाषाओं से प्रेम है और शायद इसीलिए जब से होश संभाला, इन्होने कलम को अपना साथी बना लिया और व्यक्त करने लगीं शब्दों से अपने दिल की बात। भाषा चाहे जो भी रही हो इनकी हर रचना का अक्सर एक ही मक़सद रहा है, इंसानियत। १९७५ मे जावरा मैं बस गईं। वहां के प्रसिद्ध शायर आदरणीय खतीब साहब ने ना सिर्फ उनकी रचनाओं को सराहा, बल्कि उन्हें उर्दू का ज्ञान भी दिया। पारिवारिक जिम्मेदारियों से बंधी लेखिका जीवन की कठिन राह में रुकते ठहरते भी अपने लिखने के जुनून को खत्म न कर पाई और शायद यही वजह है कि उम्र के इस पड़ाव पर आकर फिर से कलम को थाम लिया। वो कहते हैं ना की परिस्थिति चाहे जो भी हो आपका जुनून दिल के किसी कोने में हमेशा ही दबा रहता है, बस सिर्फ एक मौका मिलना चाहिए उसे बाहर लाने का। लेखिका को बच्चों का एक मज़बूत सहारा मिला, तभी संभव हो पाया उनका ये सपना। इंसानियत को ही अपना धर्म मानने वाली इस लेखिका की हर रचना एक से बढ़कर एक है। उम्मीद है की जैसे मुझे इन की हर रचना पसंद है,सभी पाठकों को भी पसंदआएगी।