ग़ज़ल ने अपना सफ़र अरबी भाषा में आरम्भ किया। फारसी शायरी के माध्यम से इसने हिन्दोस्तान में बारहवीं शताब्दी के आसपास मुगल साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् अपने पांव रखे। लेकिन ग़ज़ल से पहले हमारे यहाँ संस्कृत भाषा में अनेक ऐसे ग्रंथ रचित मिलते हैं जिनमें दो-दो पंक्तियों पर आधारित श्लोक अथवा शेयर मिल जायेंगे जिनमें ग़ज़ल के अश्यारों जैसी संक्षिप्ता, सहजता, सभ्यता, रवानी, विषय तत्व, लय एवं प्रगीतात्मकता, छनद आदि मिल जायेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि ऐसा सब कुछ हमारे प्राचीन साहित्य में पहले से ही वर्तमान था। लेकिन हकूमतों के परिवर्तन के साथ-साथ भाषायें भी अपना महत्त्व प्राप्त करती हैं, वहाँ कुछेक अपना तेज़-प्रताप खोती चली जाती हैं। हकूमतें भाषा को पोषती हैं, पालती हैं, उन्हें लोगों को अपनाने के लिए उत्साहित करती हैं। मुगलों के आने से हमारी भाषाओं को चोट लगी जबकि इस सिनफ़ की तरफ़ लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ। मुगलों ने इसे आगे बढ़ाया क्योंकि यह उनकी विलासी प्रवृति के अनुकूल थी। लेकिन स्वतंत्रता के आंदोलन ने ग़ज़ल की प्रवृति में राष्ट्रीयता और देश भक्ति की भावना को विकसित किया। ऐसा सभी भारतीय भाषाओं में हुआ। हिन्दी भाषा में आने से पहले इसे कई रास्तों से दो-चार होना पड़ा। उर्दू ने इसे स्थापित किया और उसके पश्चात् हिन्दोस्तान की विभिन्न भाषाओं जैसे हिन्दी, पंजाबी, डोगरी आदि में भी इसने प्रवेश किया और अपनी जगह बना ली। दक्षिण की अपेक्षा इसे उत्तर भारत में अधिक लोकप्रियता मिली और सम्मान भी मिला। हिन्दोस्तान के सत्ता के केन्द्र रहे बड़े-बड़े नगरों में इसे ऐसे शायर और अदीब मिले जिन्होंने इस विधा को आकाश की बुलन्दियों तक पहुँचाया। सामन्तों, राजाओं और अमीरों के मध्यों और दरबारों में इसे अहमियत मिली। धीरे-धीरे इसे पैसों से जोड़ दिया गया। इस तरह सभी प्रकार की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए इसने अलग-अलग भाषाओं में स्वयं को स्थापित करने के लिए ख़ूब संघर्ष किया। स्वतंत्रता के पश्चात् उर्दू लिपि का प्रचलन कम हो गया। नई पीढ़ी से वह दूर होती चली गई। नई सरकारों ने इसे प्रोत्साहन देना बन्द कर दिया। धीरे-धीरे उर्दू ग़ज़लों के दीवान देवनागरी लिपि में नौजवान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रकाशित किये जाने लगे। सिनेमा ने भी इसे ख़ूब प्रचारित किया। फ़िल्मी गीतों पर आधारित गीत संग्रह भी प्रकाशित होने लगे। इस तरह हिन्दी में इसे इस प्रकार आगे बढ़ने के अवसर मिलने लगे। इस का सुखद परिणाम दुष्यंत कुमार के ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ के प्रकाशन के पश्चात् सामने आयें। दुष्यंत कुमार की अभिव्यक्ति की क्षमता ने हिन्दी ग़ज़ल की संरचना में परिवर्तन की रेखायें खींची और भावी पीढ़ी के लिए विशाल रोशनी स्तम्भ का काम किया।