एक ऐसी कहानी हकीकत को दर्शाती हुई जिसमे नायक विक्रम के पैरों के निचे की जमीन कुछ ही घण्टों में सरक जाती है एक ऐसा हादसा, जिसमें भगवान समझे जाने वाले डॉक्टर पर से विश्वास उठ गया।न चाहते हुए भी विक्रम एक ऐसी हकीकत में उलझ कर रह गया जिससे बाहर निकल पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया।पुलिस और असामाजिक तत्व और साथ साथ राजनीतिक दलदल।पुलिस और प्रशासन चन्द लोगों के हाथ की कठपुतली लेकिन विक्रम अपने आपको लाचार और असहाय नहीं मानता।विक्रम के सामने आने वाले अच्छे रास्ते और बूरे रास्ते।विक्रम क्या चुना यही सब कि मै अच्छे-बुरे रास्ते में से कौन से रास्ते पर चलना।क्या अच्छे रास्ते पर चलना मुश्किल होता है या फिर गलत रास्ता। --तड़ाक---तड़ाक-----।विक्रम के कुर्सी पर बैठने के साथ ही इंस्पेक्टर कालीचरण अपने दौनो हाथों से विक्रम के दोनो गालों पर जबरदस्त प्रहार किया।झन्नाटेदार झाप्ड़ पडते ही विक्रम का मश्तीक्ष झन्ना गया। क्या अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी की जान लेना परोपकार है।किसी आम नागरिक को आम इन्सान से शैतान बनाना परोपकार है। --विक्रम भाई,तुमने कभी शतरंज का खेल खेला है----। --नहीं ""। --अगर नही खेला तो सुनो,शतरंज के खेल में राजा रानी,घोडा-हाथी,प्यादे सभी होते हैं,कहने के लिए प्यादे राजा की सेना होते हैं लेकिन किसी भी प्यादे को यह मालूम नहीं होता कि उसे अगली चाल में कहाँ रखा जाना है,ठीक उसी प्रकार मै और तुम वह प्यादे है,जिसकी अगली चाल का हमे पता नहीं होता----।"कहते कहते गंभीर हो गया वायपर। --जनरल डायर तो आदेश देने वाला था,लेकिन गोली चलाने वाले सभी हिन्दुस्तानी थे---। कहने के लिए विक्रम एक सीधा सादा युवक था लेकिन क्या लोगों ने उसको जीने का हक दिया। क्या आदमी हालात के आगे मजबूर हो जाता है या अपनी इच्छा शक्ति से हालात को झुकने के लिए मजबूर कर देता है। इन सभी सवालों के जवाब है इस उपन्यास खूनी मसीहा में।