यूँ हीं नौ बजे के आसपास रात को टहलते हुए बाहर निकला । झिंगुड़ो के आवाज़ , पत्तों सरसराहट, हल्की ढंठी हवा , नीले चादर से ढंका आसमान, हिलते कांपते लम्हों की टोह लेता मन , बढते गिरते समय के साथ अनचाहे सोच के साथ कदम धड़कन के मृदंग का शोर सीने में दबा कर अपने संकोच के अंधेरे कोने में थिर और चुपचाप से टहलने जाते हुए की इस गीत ने मेरे एकांत को भंग कर दिया । गीत गुरु जी के कमरे से आ रही थी । गुरु शब्द में हीं सारा परिचय समाहित । मेरे गुरु जी स्वभाव से गाँधीवादी , सोच से प्रगतिवादी संस्कार और कर्म से पूर्ण धार्मिक । महर्षि मेंही दास से प्रभावित गुरु जी हिन्दी एवं संस्कृत के ज्ञाता होने के साथ-साथ एक कुशल वक्ता थे ।अपने भीतर करुणा की आँच संजोए बिल्कुल शिशिर की धूप की तरह हमारे गुरु जी । जहाँ से देवताओं के किस्से खत्म होते हैं , जहाँ पूर्ण विराम हाँफता नज़र आता है और एक थकान भरी उदासी दिखती है बिल्कुल उसी के बीच की कहानी हैं गुरु जी । गुरु इस किस्से के आरंभ हैं । आरंभ टूटे हुए पत्थरों की और अंत पहाड़ तोड़ने वाले की । गुरु एक स्तंभ भी हैं और गुरु जी मनुष्य के डराने हो जाने के बाद के पराजय की निशानी भी हैं । अंगिका भाषा के निर्गुण गीत ने जैसे मेरे पाँव को समय के पार लटका दिया । रात का एकांत जब फूल सो रहे थे, नीला आकाश शोकग्रस्त होने लगा । कदम गुरु जी के कमरे की तरफ बढ चले । जाते हीं गुरु जी ने बैठने का इशारा किया और फिर सिरहाने से दो पुस्तकें निकाल कर मेरे हाथों में थमाते हुए –