शब्दों को एक सूत्र में बांधना निश्चित ही एक साधना है, एक तपस्या है। भारत में अनेक ऐसी साहित्यिक प्रतिभाएं प्रकट हुईं, जिन्होंने इस प्रकार की साधना करके समाज को राष्ट्रीय विचार दिया है। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री और दिशा बोध कराने वाली अनेक पुस्तकों के लेखक श्रीयुत् श्रीधर पराडकर जी का कथन है कि लेखन समाज को सार्थक और सकारात्मक दिशा देने वाला होना चाहिए। लेखन में हमारी सांस्कृतिक मर्यादा पालन का ध्यान रखना चाहिए। श्री पराडकर जी ऐसा कहते हैं तो स्वाभाविक रूप से यही कहा जा सकता है कि उन्होंने साहित्य की राष्ट्रीय धारा को ग्रहण किया है। मेरे अंदर आज जो कुछ भी है, वह ऐसे ही महान साधकों के आशीर्वाद और संगत का ही परिणाम है। मुझे याद आती है एक बात। लगभग 30 वर्ष पहले की बात रही होगी। उस समय समाचार पत्र पत्रिकाओं में मेरे लेख, कविताएं, कहानी, व्यंग्य और क्षणिकाएं प्रकाशित होना प्रारंभ हो गईं थीं। बड़े अखबारों में नाम छपने की जिज्ञासा हर किसी के अंदर होती है। इसलिए सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि राष्ट्रीय ख्याति के समाचार पत्रों में नाम छपने की प्रसन्नता क्या होती है, मैंने यह प्रसन्नता महसूस की। इसी समय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जीवन दायिनी कार्यकर्ता बन चुका था। मुझ पर स्नेह की वर्षा करने आदरणीय श्रीयुत् जगदीश तोमर जी से नियमित संपर्क होता था। मेरे लेखन से वे कितना परिचित रहें होंगे, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन उन्होंने कहा कि तुम्हारे लेखों की भाषा बहुत सधी हुई है, लेख ही लिखा करो। उस समय के बाद मैंने अन्य विधाओं को छोड़कर केवल लेख ही लिखे, जो आज तक नियमित रूप से जारी है।