इन सभी कृतियों के रचयिता मेरे पूज्य पिता श्री दिग्विजय सिंह गौड़ हैं। उनका जन्म 12 सितंबर 1931 को राजस्थान के 'नांवा' गाँव में हुआ था।
अपनी प्रारंभिक रचनाओं में वे 'विजय' उपनाम भी प्रयोग करते हैं।
वे एक ऐसे बालक थे जिसने बचपन में देशप्रेम एवं बलिदान की भावना से ओतप्रोत स्वतंत्रता संग्राम देखा था, जो कि अखंड भारत की प्राप्ति के लिए था।
किशोरावस्था में सत्तालोलुप, पदपिपासु, स्वार्थी, विकृत विघटनकारियो का देशद्रोह एवं विश्वासघात भी देखा, जिसने भारत को विभाजित कर दिया था। उनके किशोर मन पर उन घटनाओं का सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ा था। उनके उसी किशोर मन ने खंडित भारत को बहुत पीड़ा से स्वीकार किया। वह ठगा, छला महसूस करने लगा | उसे भारत माता का विभाजन गद्दारो और विश्वासघातियों का विजय पर्व अधिक लगा।
विभाजन का वह दर्द उनकी उस समय की रचनाओं में झलकता है। पर वे घटनाएं तो इतिहास का भाग बन चुकी थी, विश्व के मानचित्र पर दो राष्ट्र बन चुके थे, जिन्हें शीघ्र तो बदला नहीं जा सकता था। हां, सीखा अवश्य जा सकता था।
धीरे धीरे वह किशोर युवावस्था की ओर अग्रसर होता है और विश्व मानचित्र में दर्शित भारत का नागरिक बनता है। अपने स्वतंत्र देश को आदर्श रूप में देखने का स्वप्न देखने लगता है। उन्हें मूर्तरूप में प्रतिस्थापित करने में जो भी कमियां, बाधाएं नजर आती हैं, उन्हें शब्दों में पिरोता है, प्रश्न करता है, समाज से, देश के नेताओ से, कभी समाधान भी प्रस्तुत करता है। अब वह युवा आत्मनिर्भर होने के प्रयास में शिक्षक बनता है। साथ ही वह विद्यार्थी भी होता है।