मेरा ऐसा मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक रचनाकार होता है। अभिव्यक्ति की अनुकूलता और दक्षता पाकर हर व्यक्ति का रचनाकार उसी स्तर से बाहर आता है। बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति बालकवि या बाल रचनाकार के रूप में समाज के सम्मुख प्रकट हो जाता है। जबकि बहुत बार देखने में आता है कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी रचनाकार अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा होता है किंतु उसके आंतरिक परिवेश में अथवा बाहरी वातावरण में बहुत सारी प्रतिकूल स्थितियां-परिस्थितियां ऐसी होती हैं जो उसकी टांग पकड़कर पीछे की ओर खींच रही होती हैं। जिसका दुष्परिणाम यह होता है जिस व्यक्ति को बालकवि के रूप में ख्याति अर्जित कर लेना थी, वह व्यक्ति वृद्ध रचनाकार की पहचान पाने के लिए भी जद्दोजहद कर रहा होता है। दोनों ही परिस्थितियों के बीच की एक तीसरी स्थिति होती है जिसमें अंतिम रूप से व्यक्ति के रचनाकार की जीत होती है। देर से ही सही व्यक्ति का रचनाकार किसी न किसी रूप में, किसी न किसी अंश में बाहर आता है और यह साबित करने में कामयाब रहता है कि उसके भीतर रचनाकार था, रचनाकार है और रचनाकार रहेगा। शायद इसी तीसरी स्थिति के लिए मेरे पूज्य पिता श्री और इस देश के वरिष्ठ छायावादी गीतकार स्वर्गीय गंधर्व सिंह तोमर 'चाचा' ने कभी लिखा था-
"मेघ ढक ले सूर्य को, नहीं होती रात है।
साथ दुनिया छोड़ दे, लेखनी तो साथ है।।"