आज तक मैंने स्वनावकाश,धरांकुर काव्य की और मोरपिंछ नवलकथा की,गजल गगरी गज़ल की बुक प्रकाशित की है। ये सब गुजराती भाषा में है। जब की जल तरंग हिंदी काव्यों की बुक है। मुझे बहुत खुशी होती है इसे प्रकाशित करते हुए।
जल तरंग के काव्यों में भाव, छेड़खानी,गुस्सा,नाराज़गी,बचपना जैसी काव्य के द्वारा कई तरंगे जुड़कर एक हुई है। इसलिए पुस्तक का नाम ‘’जल तरंग” रखा है।
सुभाषित
कल्लोलसंचलदगाधजलैरलोले: कल्लोलिनीपरिवृढै: किमपेयतोये:।
जीयात्स जर्जरतनुर्गिरिनिर्झरोङ्यं यद्वि प्रुषाषि तृषिता वितृषिभवंती।।
जिसके अगाध जल, तरंगो के से डोल रहे है,फिर भी उसकी गहराई स्थिर है और जिसका जल नदियों से बढ़ रहा है,ऐसे समंदर के जल खारे होने के कारण पीने के लायक नहीं है;तो उससे क्या फायदा?
दुर्बल-जर्जरित जिसका शरीर है ऐसा यह पर्वत का झरना जिंदा रहे; जिसकी दो-चार बूंदो से तृषित मनुज की तृषा शांत होती है।
यहां पर सागर व झरने के माध्यम से कवि अपने विचार व्यक्त करते है कि बनो तो झरने जैसे मीठे बनो की किसी भी समस्या का हल आपके पास आकर मिल जाये।उस समुद्र के पास जा कर क्या फायदा? जो बड़ा होते हुए भी किसी की प्यास बुझा नहीं सकता।