शब्द भावों की लिपि है। मौन हो तो भाव, मुखर हो तो शब्द! कभी-कभी अनुभव होता है- सामने का व्यक्ति कुछ ऐसा कह गया जिसे संभवतः मुझे कहना था। रचनाकार, वही सामने का व्यक्ति होता है। उसे एक अलौकिक शक्ति प्राप्त है - बेबाकी से दिखी-अनदिखी बातों को अपने ढंग में कहने की। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेद्वी ने कहा है-‘‘लोगों का देखना कुछ और है, कवि का देखना कुछ और!’’ लेखक ने तो केवल धृष्टता की है, आपकी बातों को अपनी क़लम से कोरे पन्ने पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच दी गई हैं। इनमें से कुछ रेखाएँ धूप की तरह तपिश अनुभव कराती हैं तो कुछ बारिश की नरम बूँदों की तरह सहलाती भी हैं। एक ओर कुछ कविताएँ मेरे विद्रोही काल की हैं तो दूसरी ओर प्रकृति के स्नेह को धरती देती कविताएँ मन को आनन्दित करती हैं। उत्तरार्द्ध में अंकित कविताएँ ग्राम्य परिवेश में उपजी हैं। रचनात्मक दृष्टि से मेरे प्रारम्भिक काल की रचनाएँ इस संग्रह में अधिकतर आयी हैं। संभवतः सन् 2006 के बाद की छन्दमुक्त रचनाएँ इसमें एक साथ सिमटी हुई हैं। मूलतः कवि होते हुए मैं जीवन, प्रकृति और अनुभूतियों से जो कुछ ले पाया, उसका लिपिबद्ध संस्करण है - ‘‘धूप और बारिश’’ । मैं यह दावे के साथ कतई नहीं कह सकता कि कैसा लिखता हूँ, इस निर्णय का भार पाठकवृन्द पर और अधिकार भी उन्हीं का। जहाँ मैंने जीवन को समीपता से देखा; प्रकृति का प्यार पाया, वहीं हमारे परिवेश की राजनैतिक गंदी गतिविधियों ने मुझे कुछ खारापन भी दिया, एक कड़वा विद्रोही अनुभव दिया। क्रम की बात कहूँ तो मैंने प्रकृति से ही अपनी रचनात्मक यात्रा आरम्भ की थी। यदि अबतक (पुस्तक प्रकाशित होने के समय तक) के अपने रचनाकाल को बाँटने बैठूँ तो मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि प्रकृति से आरम्भ करते हुए वाया विद्रोह, रूमानियत तक पहुँचा हूँ।