साक्षीय पुस्तक "कलियुग के बारह सौ दिव्य वर्ष" त्रैकथा की संपूर्ण विभक्तियों में, रचनाकार द्वारा, हिन्दू सनातन धर्म को, गण मानक मानकर समयाकाल को, स्थितिक परिकल्पना व रचना से, बैठाने की कोशिश की है, यह त्रैकथा, देवताओं के बारह सौ साल की, निरंतर एक गाथा है, जो इंसानी चार लाख़ बत्तीश हज़ार साल, तक की, एक परिकल्पना है, जो कलियुग के प्रारंभ से अंत तक की, कालांतर परिस्थिति को दर्शाते हुए, पूर्ण की गई है, जिसकी पहली विभक्ति में, ‘कालगा-पिशाचों का देव’" जोकि कलियुग के आरम्भिक दशा को दर्शाते हुए, उस महान उदार चरित्र वाले, पिशाचों के देव, कालगा की महानता, व उनके द्वारा इंसानियत के लिए किये गए संघर्ष का वर्णन करता है, इसी क्रम में कालगा का, देवों के प्रति प्रतिघात और उस महान जीवात्मा का, धरती पर उत्थान का भी नाटकीय वर्णन किया गया है.