रचना और सिद्धांत में अन्तरावलम्बन है। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। नयी रचनाशीलता ने पुराने काव्य-सिद्धांतों के सामने हमेशा एक प्रश्न चिह्न लगाया है। आधुनिक रचनाशीलता ने भी परम्परित समीक्षा-मानों को चुनौती दी है। इस चुनौती का जहां सीधे-सीधे सामना किया गया है, वहां ये काव्य सिद्धांत एक नए अर्थ- सन्दर्भ से संक्रान्त हो गए हैं। यह आवश्यक है कि रचनात्मक प्रवृत्तियों के समानान्तर काव्य शास्त्रीय तथा सौंदर्य शास्त्रीय अवधारणाओं की पुनर्परीक्षा और पुन र्मूल्यांकन हो। इससे ये अवधारणाएँ प्रासंगिक और सार्थक सिद्ध हो सकती हैं। प्रस्तुत संकलन में हमारा प्रयत्न आधुनिक हिन्दी काव्य के सन्दर्भ में 'अप्रस्तुत विधान' जैसी काव्यशास्त्रीय अवधारणा के व्यापक स्वरूप की प्रतिष्ठा करना तथा इसे काव्य-शिल्प की एक समर्थ धारणा के रूप में प्रतिपादित करना रहा है।
अप्रस्तुत - विधान, अलंकार या अलंकार का कोई प्रकार विशेष नहीं है। अप्रस्तुत-विधान के इस सीमित अर्थ-वृत्त को तोड़कर इसे यहां एक ऐसे विभावन के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसके अन्तर्गत उपमा लक्षणा संबंधी आलंकारिक दृष्टि ही नहीं, प्रतीक, बिम्ब तथा मानवीकरण की सौंदर्य बोधात्मक दृष्टि भी समाहित है। इसे केवल सज्जात्मक अभिधान या कलात्मक उपकरण मात्र नहीं माना जा सकता। कविता में इसकी स्थिति बाहरी नहीं है। यह कविता की प्रकृति और रूप-विधान में गुंथा हुआ है तथा काव्य सृजन-प्रक्रिया काव्याभिव्यक्ति और कविता की भाषिक संरचना से, इसकी अनिवार्य संगति है। अप्रस्तुत विधान संबंधी यह परिकल्पना, आधुनिक हिन्दी कविता के व्यापक सन्दर्भ में ही उपलब्ध हुई है। इसलिए, इस कविता का सम्यक् और समग्र विवेचन- मूल्यांकन अप्रस्तुत - विधान की इस मौलिक परिकल्पना का आधार ग्रहण करने से ही संभव है। प्रस्तुत संकलन इस दिशा में किया हुआ एक प्रयास है।