नाटक का सम्पूर्ण परिवेश सामाजिक और पारिवारिक है। घरेलू ताने-बाने में इस नाटक के सभी पात्र अपनी-अपनी भूमिका में समाज में विद्यमान हैं। नारी उत्पीड़न निरन्तर पनप रहा है। वेतन भोगी स्त्री पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध और आक्षेप लगाये जाते हैं। दहेज का दानव अभी मरा नहीं है। स्वार्थपरता और लोलुपता के कारण हंसते-बसते परिवार टूट जाते हैं। नाटक की नायिका आकृति इसी दुर्लभ मानसिकता का शिकार है। वह न तो अपने बूढ़े बाप की देखभाल करने के लिए स्वतंत्र है और न ही आज़ादी से नौकरी कर सकती है। घिनौने और लज्जास्पद दोष उस पर लगाये जाते हैं। यहां तक कि तलाक देने की उसको अदालत में चुनौती दी जाती है। वह इन विपत्तियों में घबराती नहीं बल्कि अत्याचार और शोषण के विरूद्ध डट कर खड़ी हो जाती है। अन्ततः नारी जाति की जागृति अपने अधिकार के लिए घुटने न टेकना इस नाटक का उद्देश्य है। इस नाटक के पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं और इनका यथार्थ से कोई सम्बन्ध नहीं।