मस्तिष्क में उपज कर कलम की नोंक के रास्ते सफेद पन्नों पर बिखरे आखर मुट्ठी से फिसलती रेत ही तो हैं। काल से परे ये शब्द ब्रह्म वैचारिक सर्जन के विधाता हैं। अतः अक्षर विधान है, अक्षर विधाता है, अक्षर विधेय है। यह सांसारिक सृजन से परे है। इसकी अपनी दुनिया है, अपने जाल हैं। अनुभव, कल्पना, विचार, भाव, शब्द चयन आदि इसकी अपनी शैली। चाहे जिस तरह से व्यक्त हों यह उनपर निर्भर है। अक्षर मंत्र है- "अमन्त्रमक्षरं नास्ति।" मशीन चलाने के अपने ढंग होंगे। सही ढंग से चली तो कार्य सरल हो जाए; गलत ढंग से चली तो महाविनाश!अक्षर तो ब्रह्म ही है। सुप्रयोग हो तो सुंदर सृजन संसार! दुष्प्रयोग हो तो भयंकर काल कराल विकराल रूप!! आप स्वयं अपने आसपास इसका अनुभव करते होंगे।
लेखक अपने आसपास की घटनाओं से ही अपना रचना संसार बनाता है। कोई इसे कविता में ढाल लेता है, कोई कहानी में, कोई अन्य विधा में। विधा बात करने की शैली के अलावा और है भी क्या! रेत की तरह कण-कण बिखरते-सिमटते, समय के प्रतीक, ये कालातीत अक्षर समूह! आपको स्वयं ही आपकी संपन्नता का आभास कराएँगे, ऐसा विश्वास है। आशा है, यह सफर आपको स्वयं की ओर आकर्षित करेगा.................