लोककवि रामचरन गुप्त 23 दिसम्बर 1994 को हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनका चेतन रूप उनके सम्पर्क में आये उन सैकड़ों जेहनों को आलोकित किये है, जो इस मायावी, स्वार्थी संसार के अंधेरों से वाकिफ हैं या जिनमें इस अंधेरे को खत्म करने की छटपटाहट है। ऐसे लोगों के लिए रामचरन गुप्त आज भी एक महापुरुष, एक महान आत्मा, संघर्ष के बीच जन्मी-पली-बढ़ी एक गौरव कथा हैं। वे स्वाभिमानी, ईमानदार और मेहनतकश जि़न्दगी की एक ऐसी मिसाल हैं जिसका आदि और अन्त, मरुथल के बीच एक भरा-पूरा बसंत माना जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी। श्री रामचरन गुप्त का जन्म अलीगढ़ के गांव ‘एसी’ में लाला गोबरधन गुप्त के यहां जनवरी सन् 1914 को एक बेहद निर्धन परिवार में हुआ। उनकी माताजी का नाम श्रीमती कलावती देवी था। पंडित ने जब उनकी जन्म कुंडली तैयार की तो उसमें लिखा कि ‘यह बच्चा होनहार और विलक्षण शक्तियों से युक्त रहेगा। इसके ग्रहों के योग बताते हैं कि यह अपने माता-पिता की एकमात्र पुत्र संतान के रूप में रहेगा। श्री रामचरन गुप्त के कई भाई थे किंतु उनमें से एक भी जीवित न रह सका। श्री रामचरन गुप्त ने भाइयों का वियोग अपने पूरे होशोहवास में झेला और उनके मन पर भाइयों के मृत्युशोक की कई गहरी लकीरें खिंचती चली गयीं। भ्रात-दुःख की यह छाया उनकी कविताओं में स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। श्री रामचरन गुप्त सिर्फ कक्षा-2 तक अलीगढ के ग्राम-मुकुटगढ़ी के विद्वान, समाजसेवी, राष्ट्रभक्त मास्टर तोतारामजी द्वारा शिक्षित हुए। मास्टर तोताराम के सुशील और नेक संस्कारों की चर्चा वे अक्सर करते रहते थे।