अप्रैल का महीना था,
शाम हो चली थी लेकिन अभी पर्याप्त प्रकाश था।
सुदूर ग्रामीण इलाके के उस छोटे से रेलवे स्टेशन पर बस इक्का-दुक्का ही लोग नज़र आ रहे थे।
सुरेश ने अपनी पेंट की पिछली जेब से अपना पर्स निकालकर उसमें से एक पचास रुपए का नोट निकाला और पर्स वापस जेब में रखकर टिकट खिड़की की तरफ बढ़ गया।
"बीस रुपये और दीजिये", बाबू ने उसके बताये स्टेशन को कंप्यूटर में फीड करते हुए कहा।
"अच्छा सर अभी देता हूँ", कहते हुए सुरेश ने अपनी जेब में हाथ डाला लेकिन ये क्या उसकी जेब में तो उसका पर्स था ही नहीं!!
सुरेश ने जल्दी-जल्दी अपनी सारी जेबें टटोल लीं लेकिन उसका पर्स कहीं नहीं था।
"अभी तो मैंने पैसे निकाल कर पर्स मेरी जेब में...?", याद करते हुए सुरेश ने फिर अपनी पेंट की पिछली जेब को झाड़ा।
"जल्दी कीजिये भाई", तब तक खिड़की से फिर टिकिट बाबू की आवाज आयी।
"ज..जी..जी सर अभी लाता हूँ", कहकर सुरेश परेशान होता हुआ उस जगह आकर खड़ा हो गया जहां उसने पर्स निकाला था और वह इधर-उधर देखने लगा कि शायद कहीं गिर गया हो जेब में रखते वक्त, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी।
"कहाँ गया मेरा पर्स??!!?", वह आँखें बंद करके कुछ सोचता हुए बुदबुदाया।
"ओह्ह!!" तभी अचानक उसे कुछ याद आया और वह एक तरफ दौड़ गया।